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देवता: उषाः ऋषि: सत्यश्रवा आत्रेयः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः काण्ड:

म꣣हे꣡ नो꣢ अ꣣द्य꣡ बो꣢ध꣣यो꣡षो꣢ रा꣣ये꣢ दि꣣वि꣡त्म꣢ती । य꣡था꣢ चिन्नो꣣ अ꣡बो꣢धयः स꣣त्य꣡श्र꣢वसि वा꣣य्ये꣡ सुजा꣢꣯ते꣣ अ꣡श्व꣢सूनृते ॥१७४०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती । यथा चिन्नो अबोधयः सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥१७४०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म꣡हे꣢ । नः꣣ । अद्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । बो꣣धय । उ꣡षः꣢꣯ । रा꣣ये꣢ । दि꣣वि꣡त्म꣢ती । य꣡था꣢꣯ । चि꣣त् । नः । अ꣡बो꣢धयः । स꣣त्य꣡श्र꣢वसि । स꣣त्य꣢ । श्र꣣वसि । वाय्ये꣢ । सु꣡जा꣢꣯ते । सु । जा꣣ते । अ꣡श्व꣢꣯सूनृते । अ꣡श्व꣢꣯ । सू꣣नृते ॥१७४०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1740 | (कौथोम) 8 » 3 » 11 » 1 | (रानायाणीय) 19 » 3 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ४२१ क्रमाङ्क पर अध्यात्म-प्रभा के विषय में की गयी थी। यहाँ जगन्माता को सम्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सुजाते) सुप्रसिद्ध, (अश्वसूनृते) व्यापक प्रिय सत्य वेदवाणीवाली (उषः) उषा के समान जगानेवाली जगन्माता ! (दिवित्मती) दिव्य प्रकाश से देदीप्यमान तू (नः) हमें (महे राये) महान् अभ्युदय और मोक्ष रूप ऐश्वर्य के लिए (अद्य) आज भी (बोधय) वैसे ही जगा (यथा चित्) जैसे, (सत्यश्रवसि) सच्ची कीर्तिवाले, (वाय्ये) खड्डी में धागों के समान फैलाने योग्य हमारे पूर्व जीवन में (नः) हमें (अबोधयः) जगाती रही है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे प्राकृतिक उषा सब प्राणियों को और कोई माँ अपनी सन्तानों को जगाती और श्रेष्ठ कर्मों में लगाती हैं, वैसे ही जगदीश्वरी माँ हम अबोधों को जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अपने कर्तव्य-पालन के लिए दिन-रात जगाती रहे, जिससे हम कीर्ति, अभ्युदय और मोक्ष प्राप्त करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४२१ क्रमाङ्केऽध्यात्मप्रभाविषये व्याख्याता। अत्र जगन्माता सम्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सुजाते) सुप्रसिद्धे (अश्वसूनृते) अश्वा व्याप्ता सूनृता प्रियसत्यात्मिका वेदवाग् यस्याः तादृशि (उषः) उषर्वत् जागरयित्री जगन्मातः ! (दिवित्मती) दिव्यप्रकाशेन देदीप्यमाना त्वम् (नः) अस्मान् (महे राये) महतेऽभ्युदयनिःश्रेयसरूपाय ऐश्वर्याय (अद्य) अस्मिन् दिनेऽपि (बोधय) जागरूकान् कुरु, (यथा चित्) येन प्रकारेण, त्वम् (सत्यश्रवसि) सत्ययशसि (वाय्ये) वातुं योग्ये तन्तुवत् सन्ताननीयेऽस्माकं पूर्वजीवने। [वेञ् तन्तुसन्ताने, ण्यत्।] (नः) अस्मान् (अबोधयः) जागरूकान् कृतवती ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

यथा प्राकृतिक्युषाः सर्वान् प्राणिनः काचिन्माता वा स्वसन्तानान् जागरयति सत्कर्मसु संलग्नांश्च करोति तथैव जगदीश्वरी जगन्माताऽबोधानस्मानाजन्मन आमरणं स्वकर्तव्याचरणाय दिवानिशं प्रबोधयेद् येन वयं कीर्तिमभ्युदयं निःश्रेयसं च लभेमहि ॥१॥